
वक़्त-वक़्त पर समाज को ऐसे संत महापुरुष मिलते हैं, जो अपने आचरण और चिंतन से लोगों को आत्मनिरीक्षण के लिए बाध्य कर देते हैं। श्री राम लखन दास जी ऐसे ही एक असाधारण संत हुए, जिनकी उपस्थिति ने धार्मिकता को केवल कर्मकांडों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे निर्भीकता, वैराग्य और सत्य के कठोर धरातल पर खड़ा किया।
वकालत जैसे प्रभावशाली और प्रतिष्ठित पेशे में रहकर उन्होंने संसार की वह वास्तविकता देखी, जहाँ न्याय शब्दों में सिमट कर रह गया था। इसी अनुभव ने उन्हें आत्ममंथन की ओर मोड़ा। श्रीमद्भगवद्गीता के अमृत तुल्य उपदेशों ने उन्हें इतना स्पर्श किया कि एक दिन उन्होंने सांसारिक मोह और पेशे को त्याग कर साधु-वृत्ति अपना ली।
उनकी साधना स्थली बनी रामदीरी की अस्थाली, जो आज भी उस आत्मिक तप की साक्षी है। उन्होंने न तो प्रसिद्धि की इच्छा की, न ही दिखावे का जीवन जिया। वे ‘अतिथि संत’ कहे जाते थे, क्योंकि उनका ठिकाना कहीं स्थायी नहीं था, लेकिन जहाँ भी वे रहते, वहाँ आत्मज्ञान की धारा प्रवाहित होती।
उनकी वाणी में मिठास कम, सत्य की कठोरता अधिक थी — और यही उनकी पहचान थी। वे संतों की उस परंपरा से थे जो केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि जागृति चाहते थे। उनके प्रवचन श्रोताओं को भीतर तक झकझोर देते थे। वे पाखंड और दिखावे के विरोधी थे और धर्म के नाम पर व्यापार करने वालों को खुलकर ललकारते थे।
आज जब संत की परिभाषा भी ‘लोकप्रियता’ और ‘आडंबर’ से मापी जा रही है, ऐसे समय में श्री राम लखन दास जी जैसे संतों की याद हमें आत्मा के असली धर्म की ओर लौटने का आह्वान करती है।
रामदीरी का यह गौरव है कि उसकी धरती ने ऐसे निर्भीक और प्रखर संत को देखा और उनकी साधना को अपनी मिट्टी में संजो कर रखा।



