
आज जब हम अपने गाँव, समाज और सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम उन व्यक्तित्वों को स्मरण करें, जिन्होंने अपने कर्म, तप और विचारों से न केवल ग्राम्य जीवन को आलोकित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे ही एक विरल संत थे — श्री रामप्रताप दास जी, जिनकी जन्मभूमि रामदीरी (लवरचक) रही है।
भूमिहार ब्राह्मण समाज से आने वाले श्री रामप्रताप दास जी न केवल एक संत थे, बल्कि रामचरितमानस जैसे अद्भुत ग्रंथ के ओजस्वी व्याख्याकार भी थे। उनकी वाणी में वह तेज था जो श्रोताओं के हृदय को छू जाता, और वह समर्पण था जो केवल एक सच्चे संत में ही सम्भव होता है। उनका प्रवचन केवल कथा नहीं होता था — वह जीवन को दिशा देने वाली प्रेरणा बन जाता था।
धार्मिक आयोजन की दृष्टि से उन्होंने जो विराट यज्ञ का आयोजन करवाया, वह केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं था, बल्कि ग्राम-समाज को जोड़ने वाला एक विशाल सांस्कृतिक उत्सव भी था। उस यज्ञ में उन्होंने खुलकर संत-महात्माओं, विद्वानों और साधारण जन को महाभोज कराकर भारतीय अतिथि-संस्कार और संतपरंपरा की उज्ज्वल मिसाल प्रस्तुत की।
यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने रामदीरी के ही एक मैथिल ब्राह्मण युवक को अपना शिष्य बनाया — यह संकेत करता है कि वे ज्ञान और परंपरा के उत्तराधिकार को लेकर सजग और दूरदर्शी थे। उनकी दृष्टि केवल वर्तमान तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे अध्यात्म की मशाल को अगले युग तक पहुँचाने के लिए भी प्रतिबद्ध थे।
हमारे लिए यह भी गर्व की बात है कि रामदीरी उच्च विद्यालय जैसे ग्रामीण शिक्षा संस्थान के वे कभी छात्र रहे। इससे यह प्रमाणित होता है कि गाँव की मिट्टी में वह शक्ति है जो महान संतों और समाजसेवियों को जन्म देती है। यह विद्यालय निश्चय ही उनके नाम से एक प्रेरणा-स्रोत बन सकता है।
आज जब समाज पाश्चात्य प्रभावों और मूल्यहीनता के संकट से गुजर रहा है, ऐसे समय में संत रामप्रताप दास जी जैसे व्यक्तित्वों का स्मरण और पुनरावलोकन अत्यंत आवश्यक हो जाता है। वे न केवल आध्यात्मिक संत थे, बल्कि ग्राम्य समाज की चेतना को जाग्रत करने वाले पुरुष भी थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि सेवा, समर्पण और संतुलन है।




